तत्त्व
प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र और त्रिपुरा-सिद्धान्त दोनों ही मतों में छत्तीस तत्त्व माने गये हैं। इनके परे जो है वह तत्त्वातीत है।
संसार इन्हीं छत्तीस तत्त्वों की समष्टि है। तत्त्वातीत से ही तत्त्वों का उद्भव होता है, इसलिए दोनों मूल में एक ही हैं।
तत्त्व | |
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१-५ | प्रकृति (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) |
६-३१ | माया (यह सब सूक्ष्म तत्त्व हैं) [1] |
३२-३४ | महामाया |
३५ | शक्ति |
३६ | शिव |
३७ | एकरस, साम्यावस्था |
इस विश्व में पैंतीस और छत्तीस संख्यक तत्त्व हैं, जिसका पारिभाषिक नाम शक्ति और शिव है, वह नित्य है। यहाँ तक कि इसका आविर्भाव और तिरोभाव नहीं है, यह सदा उदित है, इसलिए वास्तव में पृथिवी से लेकर सदाशिव-तत्त्व तक चौंतीस ही तत्त्व विश्व-नाम से अभिहित होने योग्य हैं। अतः सृष्टि शब्द से सदाशिव प्रभृति तत्त्व माला का क्रमशः आविर्भाव समझना चाहिए। इस शक्ति के साथ शिव सदा मिलित रहते हैं।
शक्ति ही अन्तर्मुख होने पर शिव है और शिव ही बहिर्मुख होने पर शक्ति है।
शिवतत्त्व में शक्तिभाव गौण और शिवभाव प्रधान है - शक्तितत्त्व में शिवभाव गौण और शक्तिभाव प्रधान है। परन्तु जहाँ शिव और शक्ति दोनों एकरस हैं, वहाँ न शिव का प्राधान्य है और न शक्ति का। वह साम्यावस्था है। यही नित्य अवस्था है। यही तत्त्वातीत है। कोई कोई इसे सैतीसंवा तत्त्व कहते हैं। यही सबके चरम लक्ष्य है। शैवों के ये परम-शिव, शाक्तों की पराशक्ति और वैष्णवों के श्रीभगवान हैं। [2]
परमहंस रामकृष्ण तत्त्व को समझाते थे - "तत्त्वज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञान। तत् अर्थात परमात्मा, त्वं अर्थात जीवात्मा! जीवात्मा और परमात्मा के एक हो जाने पर तत्त्वज्ञान होता है।"[3]
सन्दर्भ
- ↑ तान्त्रिक साधना और सिद्धान्त, तृतीय संस्करण, पृष्ठ २८
- ↑ कविराज प्रतिभा, 2016, प्रकाशक - सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ २६२,२६३
- ↑ श्रीरामकृष्ण वचनामृत भाग २ - परिच्छेद ९६ - अहेतुकी भक्ति, 2002, प्रकाशक - रामकृष्ण मठ, पृष्ठ ६८६