मन

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आध्यात्मिक

मन एक भूमि मानी जाती है, जिसमें संकल्प और विकल्प निरंतर उठते रहते हैं। विवेक शक्ति का प्रयोग कर के अच्छे और बुरे का अंतर किया जाता है। विवेकमार्ग अथवा ज्ञानमार्ग में मन का निरोध किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा शून्य में होती है। भक्तिमार्ग में मन को परिणत किया जाता है, इसकी पराकाष्ठा भगवान के दर्शन में होती है।

जीवात्मा और इन्द्रियों के मध्य ज्ञान मन कहा जाता है।

मन की अवस्थाएँ [1]
अवस्था विषय इन्द्रिय मन आत्मा
जाग्रत ✔ (मनोवहा नाड़ी)
स्वप्न ✔ (हृदय में शून्य)
सुषुप्ति ✔ (महानाड़ी)
तुरीय ✔ (महाशून्य)
तुरीयातीत ✔ (विकल्पहीन मन) ✔ (पूर्ण प्रकाशस्वरूप आत्मा या ब्रह्म)

मनोवहा नाड़ी - मन के सञ्चरण मार्ग का नाम मनोवहा नाड़ी है। यह देह भर में व्याप्त, अति सूक्ष्म आध्यात्मिक वायु के सहारे, सूत के धागों से बने जाल की भांति एक बहुत ही जटिल नाड़ी जाल है। यह देखने में मछली पकड़ने के जाल जैसा है, जिसमें बीच बीच में कूट ग्रंथियाँ भी हैं।

मन के एक एक प्रकार के भाव(वृत्ति) के उदय होने पर एक-एक प्रकार की नाड़ी के मार्ग में घूमने-फिरने लगता है। मन के वृत्तिभेद में पञ्चभूतों का सन्निवेश रहता है, जैसे क्रोध में तेज का और काम में जल इत्यादि का। पूर्व के अनेक जन्मों की वासनारूपी सूक्ष्मवायु के कण या रेणुओं के द्वारा यह जाल भरा हुआ है। यही सब मन को चञ्चल करते हैं। इस प्राणमय नाड़ी-जाल के द्वारा सारा शरीर व्याप्त है। यह वायुमण्डल मन का सञ्चार क्षेत्र है। यह नाड़ी जाल हृदय के बाहर है। [2]

हृदय - मन स्थिर होने पर नाड़ी मार्ग में नहीं रहता। संकुचित होकर हृदयाकाश में प्रविष्ट हो जाता है। [3]

महानाड़ी - हृदयरूपी शून्य में असंख्य नाड़ियों के एकीभूत होने पर ऊर्ध्वस्रोता महानाड़ी का विकास होता है। महानाड़ी का पर्यवसन महाशून्य में होता है। [4]