योग की सात भूमियाँ हिन्दू धर्म में योग की विभिन्न अवस्थाएँ हैं।
ज्ञानी़-योगी जन समझाने की सुविधा के लिए इस मार्ग में छह भूमियाँ स्वीकार करते हैं। एक ओर स्थूल-जगत और स्थूल-देहाभिमानी मानव-रूपी जीवात्मा है। दूसरी ओर नित्य जाग्रत परमात्मा है। यह दोनों छोर मार्ग की सीमा के बाहर हैं। स्थूल-देह में आत्मभाव (देहाभिमान) की निवृत्ति हुए बिना मार्ग में प्रवेश प्राप्त नहीं होता।
प्रथम भूमि | सूक्ष्म जगत |
द्वितीय भूमि | सूक्ष्म जगत |
तृतीय भूमि | सूक्ष्म जगत |
चतुर्थ भूमि | सूक्ष्म जगत और कारण जगत की सन्धि में |
पञ्चम भूमि | कारण जगत |
षष्ठ भूमि | कारण जगत |
सप्तम भूमि | आत्मा परमात्मा के साथ एक होकर विराजमान होता है |
प्रथम भूमि
प्रथम भूमि शुभेच्छा अवस्था है। यह बाहरी भूमिका है। यह साधन लक्षण मात्र है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
द्वितीय भूमि
द्वितीय भूमि विचारणा अवस्था है। यह भी बाहरी भूमिका है। यह भी साधन लक्षण मात्र है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
इस भूमि में सूक्ष्म जगत के अनुभव - दर्शन, स्पर्श आदि विषयों में नये संस्कार पैदा होते हैं।
तृतीय भूमि
तृतीय भूमि तनुमानसी अवस्था है। इस अवस्था में मन की क्षीणता होती है अर्थात् मन रहता है परन्तु वह भीतर डूबा रहता है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
इस भूमि में सूक्ष्म जगत के अन्तर्गत - लोक लोकान्तरों में भ्रमण किया जा सकता है। [2]
चतुर्थ भूमि
चतुर्थ भूमि सत्त्वापत्ति अवस्था है। इस अवस्था में जगत भूल जाता है, अपने आप को योगी भूल जाता है। यही समाधि का आरंभ है। इसी अवस्था के स्थायी और स्थिर होने पर साधक कृतार्थ हो जाता है। साधारणतः इस अवस्था तक साधक-अवस्था शेष हो जाती है।
इस भूमि में स्थित योगी को ब्रह्मवित् कहा जाता है। इस अवस्था से मुक्ति का लक्षण या अपरोक्ष ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है।
यह सूक्ष्म और कारण जगत की सन्धिभूमि है अथवा कारण-जगत का प्रवेश-द्वार है। अतः सब शक्तियों का नियंत्रण यहीं से होता है। यहाँ भाव और वासना की तीव्रता अधिक रहती है, शक्ति के प्रयोग का प्रलोभन भी अधिक रहता है एवं अहंकार का प्रकोप भी बहुत उग्र रहता है। यह योगी की परीक्षा का स्थान है। इन सब अलौकिक शक्तियों का बिल्कुल व्यवहार न करने पर पञ्चम भूमि में पदार्पण करने में समर्थ होता है। शक्तियों का सदुपयोग करने पर अपने आप छठी भूमि में पहुंच जाता है। शक्ति के अनुचित प्रयोग से पतन की संभावना रहती है। [3]
कोई भगवान की ओर चला हुआ साधक यदि अत्यन्त संकट में पड़ जाय, तो इस भूमि का योगी उसे अपनी शक्ति के बल से संकट से उबार देते हैं। उत्कृष्ट रोग से छुटकारा, मरूभूमि में श्रान्त-क्लान्त को जल प्रदान, भयभीत मन की भीति का शमन, हताश के प्राणों में आशा का संचार - विविध प्रकारों से साधारणतः गुप्तरूप से इस परोपकार का व्रत अनुष्ठित होता है। बौद्ध सम्प्रदाय के बोधिसत्व यह कार्य करते हैं। पृथ्वी के सभी क्षेत्रों में इस प्रकार के सेवाधर्मी विद्यमान हैं।
पञ्चम भूमि
पञ्चम भूमि असंसक्ति अवस्था है। इस अवस्था में योगी समाधिस्थ हों या उससे उठे हों, वह ब्रह्मभाव से कभी विचलित नहीं होते या संसार के दृश्यों को देखकर विमुग्ध नहीं होते। यही पक्की योगारूढ़ावस्था है। इस अवस्था में रहकर सब काम किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता है। साधारणतः महायोगीश्वर पुरूष तथा अवतारी पुरुष (अवतार) इसी अवस्था में रहते हैं और इसी अवस्था में रहकर समस्त जगत लीला का सम्पादन करते हैं।
इस भूमि में स्थित योगी की अविद्या के कार्य में आसक्ति नहीं होती, ये ही ब्रह्मविदवर कहलाते हैं।
षष्ठ भूमि
षष्ठ भूमि पदार्थाभावनी अवस्था है। इस अवस्था से योगी फिर नहीं उठते। उनके सामने तब सृष्ट-असृष्ट कुछ नहीं रहता। वहाँ कुछ करना या होना नहीं रहता। सुख-दुःख या जन्म-मरण का भ्रमज्ञान वहाँ स्फुटित नहीं हो सकता। यही द्वन्दातीत अवस्था या परम प्रज्ञा की अवस्था है।
इस अवस्था में भीतर-बाहर, स्थूल-सूक्ष्म कोई वस्तु नहीं रह जाती, किसी पदार्थ के विषय में कोई ज्ञान नहीं रहता, मैं-तुम रुप में कोई बोध भी नहीं होता। ऐसे योगी ब्रह्मविद विविधान कहलाते हैं।
सप्तम भूमि
षष्ठ भूमि का भेद करने पर समूचा मनोराज्य ध्वस्त हो जाता है - कल्पना राज्य दूर हट जाता है। माया और महामाया का खेल निवृत्त हो जाता है। [4]
सप्तम भूमि तुरीय अवस्था का शेषप्रान्त है। यही समाधि की अन्तिम अवस्था है। "केवलं ज्ञानमुर्ति" - यह साक्षात शिव-रूप या ब्रह्म-रुप है।
यही अन्तिम अवस्था चरमप्रज्ञा या जीवन्मुक्त अवस्था है। यही ब्रह्मविद् वरीयान कहलाता है। [5]