योग की सोपान परंपरा

Revision as of 21:54, 27 November 2023 by Suresh (talk | contribs) (→‎ज्ञान)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)

योग की सोपान परंपरा का उपदेश योगी विशुद्धानन्द परमहंस जी ने दिया था।

इसमें विभिन्न प्रचलित योग मार्ग को सोपान क्रम में निरूपित किया गया है। भारत, मिरजापुर, छानबे ब्लाक, थानीपट्टी गांव, प्राइमरी स्कूल, दीवार पर योग के सोपान परंपरा, पेंटिंग


कर्म ही मन्थन है, उसी से ज्ञान होता है।

चैतन्यरूप ज्ञान से भक्ति,

भक्ति से प्रेम और प्रेम से साक्षात्कार।


यही अध्यात्मसाधना की योगियों द्वारा अनुभूत परिपाटी है। सबके मूल में है कर्म - वह योग साधना का प्रथम सोपान है, मूलाधार है। प्रेम की प्राप्ति योगमार्ग से ही हो सकती है। साधारण प्रेम मनोविकार मात्र है। योगी ही सच्चा प्रेमी है। [1]

व्यष्टि अहं इन्द्रियों की सहायता से इस बाह्य जगत का परिचय पाता है। व्यष्टि के कारण वह इस जगत को कल्पना जाल के रूप में समझ नहीं पाता। यह जगत उसे घनीभूत और सत्य ही जान पड़ता है। इस बोध के ऊपर ही प्रतिष्ठित होकर उसका व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन सहस्रों जन्मों के बीच प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, लोक-लोकान्तर सभी इस बोध के साथ अनुस्यूत है।

जब तक स्थूल देह में "मैं-पन" का बोध होता है, तब तक यह नहीं हो सकता कि यह स्थूल बाह्य जगत सत्यवत प्रतीत न हो। [2]

कर्म

स्थूल-देह में आत्मभाव (देहाभिमान) की निवृत्ति करके सूक्ष्म-जगत में प्रवेश प्राप्त होता है। [3] इसके लिए प्राणायाम, मंत्र जप आदि नाना प्रकार की साधनाएँ की जाती हैं।

ज्ञान

ज्ञान की अवस्था को योग की सप्त भूमियाँ नाम से भी समझा जाता है।

भक्ति

जीव कर्म कर सकता है, परंतु भाव को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्वरूपतः भावमय नहीं है। भावभक्ति का उदय कृपा से ही होता है। यह कृपा साक्षात भगवान की भी हो सकती है अथवा सिद्ध भगवद्भक्त की भी।

भक्ति ह्लादिनी शक्ति की एक विशेष वृत्ति है। [4]

प्रेम

भक्ति का विकास ही प्रेम है। भावसाधना करते-करते स्वभावतः ही प्रेम का आविर्भाव हो जाता है। [5]

सन्दर्भ

Template:टिप्पणीसूची


श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:हिन्दू आधार